Jalndhar/ राजद्रोह कानून के दुरुपयोग पर विशेष संपादकीय

सुप्रीमकोर्ट की टिपण्णी को देशहित में गंभीरता से ले सरकार

          राकेश शान्तिदूत/ संपादक, मैट्रो एनकाउंटर

अंग्रेज जो कानून गांधी और तिलक को चुप कराने के लिए लेकर आये थे उसकी अब जरूरत क्या है” ब्रिटिश औपनिवेशिक काल के कानूनों पर आजाद भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की गई सम्भवतः यह अब तक की कठोरतम टिप्पणी कही जा सकती है।

सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी राजद्रोह कानून के वर्तमान में हो रहे दुरुपयोग के संदर्भ में इस कानून की संवैधानिकता को चुनौती देने के लिए रिटायर्ड मेजर जनरल एस जी वोम्बतकेरे द्वारा दायर एक याचिका पर की है। कोर्ट ने कहा है कि आई पी सी की धारा124 ए (राजद्रोह) का प्रयोग अंग्रेज भारत की आज़ादी के आंदोलन को दबाने के लिए करते थे। मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व वाली पीठ ने कहा कि अब के आंकड़े देखें तो इस कानून में आरोपित लोगो के दोषी होने की दर कम है और इसके दुरूपयोग के मामले भी सामने आ रहे है। ऐसे में जब कई कानून बदले जा चुके है तो आज़ादी मिलने के 75 साल बाद भी इस क़ानून को जारी रखना क्यों जरूरी है।कुल मिला के सर्वोच्च अदालत ने इस कानून के दुरुपयोग और कार्यकारी एजेंसियों की जवाबदेही न होने पर चिंता व्यक्त करते हुए जहा केंद्र सरकार को विस्तृत हलफनामा दायर करने के निर्देश देते हुए ऐसे कानूनों को जारी रखना दुर्भाग्यपूर्ण बताया है। अदालत ने सरकार के उस तर्क को, जिसमे उसने कहा है कि जरूरी दिशा निर्देश जारी करके इस का दुरुपयोग रोका जा सकता है, यह कहते हुए नकार दिया है कि आई टी एक्ट की धारा 66 ए भी निरस्त हो चुकी है लेकिन फिर भी इसके तहत मुक़द्दमे दर्ज किए जा रहे हैं।

ताजा संदर्भ में देखे तो दिशा रवि, विनोद दुआ, आन्ध्र टी वी मामले सहित कई अन्य मामले है जिसमे इस कानून का दुरुपयोग हुआ दिखाई पड़ा है। कोर्ट ने इन मामलों में भी स्पष्ट कहा कि असहमति का स्वर राजद्रोह नही कहा जा सकता और इसी आधार पर उसने कई मामले रदद् किए और कइयों में नामजदों को इसी आधार पर जमानत दी। आंकड़ो को देखे तो गत 6 वर्ष में इस कानून के तहत दर्ज 326 केसों में गिरफ्तार 559 व्यक्तियों में से सिर्फ 10 दोषी पकए गए।सबसे ज्यादा केस 2019 में ही दर्ज किये गए। इससे साफ लगता है कि इस कानून का दुरुपयोग हुआ है।

दरअसल अब तक कि सरकारों ने ब्रिटीशकाल केउन्हीं कानूनों को बदला है जिनमे सत्तारूढ़ दलों को सियासी या उनके समर्थकों को आर्थिक लाभ मिल रहा है। आज़ादी के बाद भी सभी सरकारों ने ऐसे कानूनों को जिंदा रखा जिसके जरिये वह असहमति या अस्वीकार्यता से जुड़े अभिव्यक्ति के मौलिकाधिकार को कुचल सके। आज़ाद भारत में 1975 का एमरजेंसी का दौर इस के जीते जागते उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है। वर्तमान आंकड़े और परस्थिति पर कोर्ट की चिंता रही है कि इसकी पुनरावृति हो रही है। अभिव्यक्ति का मौलिक अधिकार ही सही मायनों में आज़ादी है और यही लोकतंत्र का मूलाधार है। एस जी वोम्बतकेरे और सर्वोच्च न्यायालय दोनी ही साधुवाद के पात्र हैं जिन्होंने इस अधिकार की सुरक्षा के लिए पहलकदमी की है। राजनीतिक दलों को भी चाहिए कि वह इस दाग को धोएं कि ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ लगभग 90 साल के संघर्ष से भारत को आज़ादी नही मिली सिर्फ सत्ता हस्तांतरित हुई है।

वैसे इस देश की जनता में आज़ादी हासिल करने का जज़्बा स्वतन्त्रता संग्राम और फिर जे पी आंदोलन में दुनिया ने देखा है, वर्तमान सत्ताधीशों को सदैव यह अपने जेहन में रखना चाहिए।

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