विशेष लेख: अकाली दल से पुनः गठबंधन की अपेक्षा पंजाबियों का दिल जीतने का मार्ग तलाशना भाजपा के लिए अधिक फायदेमंद

                     विशेष लेख/राकेश शान्तिदूत

राकेश शान्तिदूत/सम्पादक मेट्रो एनकाउंटर

 

बादल परिवार नीत अकाली दल -और भारतीय जनता पार्टी में पुनः गठबंधन की सुगबगाहट सुनाई दे रही।  अकाली दल  ने सर्वसमिति से अपने स्थाई मुखिया सुखबीर बादल को इस दिशा में आगे बढ़ने के अधिकार प्रक्रियात्मक रूप से दे दिए हैं। हालांकि अब तक भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व के तेवर अकाली दल पर बादल परिवार का गलबा रहते उससे गठबंधन न किये जाने के ही दिखाई दिए है और न ही ऐसा कोई प्रस्ताव भाजपा ने अकाली दल को अभी भेजा है। किसान आंदोलन के अंतिम चरण में भाजपा से बरसो पुराना नाता अकाली दल ने सूबे में अपनी बची – खुची सियासी लुटिया डूबती देख तोड़ दिया था, लेकिन इसके बावजूद , अकाली -भाजपा गठबंधन सरकार के कार्यकाल में श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी के स्वरूपों की बेअदबी की घटनाओं, सच्चा सौदा प्रमुख राम रहीम को माफी सहित कुछ अन्य मुद्दों पर जन नाराजगी और विषेशता इसके वृहद सिक्ख वोट बैंक में इसके प्रति पैदा हुए अविश्वास को अकाली दल अभी तक समाप्त नही कर पाया। सूवे के विगत विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबंधन के बावजूद अकाली दल कोई लाभ नही उठा सका।अभी भी सिक्खों के एक बड़े वर्ग में बादलों के प्रति नकारत्मकता खुले आम व्यक्त की जा रही है जो स्थाई होती भी दिख रही है। बेशक बादल परिवार के प्रति अविश्वास की वजह से अलग हुआ इसका ढींडसा गुट भाजपा से गठबंधन करने के बावजूद न कुछ लित्ता ते न कुछ दित्ता वाले नपुंसात्मक भाव को चरितार्थ करने के अधिक कुछ हासिल न कर पाने के बाद अकाली दल के साथ पुनः इक्कठे होने की संभावनाएं तलाश रहा है लेकिन इसके भीतर का एक बड़ा वर्ग बादलों के साथ जाने से कतरा रहा है। हां एक पक्ष है जो भाजपा -अकाली दल गठबंधन के लिए सबसे अधिक तरलों मच्छी यानी उतावला दिख रहा है और वो है पंजाब में भाजपा के नए रूप भाजपा- कांग्रेस मिक्सचर वाला सियासी भुजिया । इसमें भाजपा के वो नेता है जो सियासी गठबंधन को हिन्दू -सिक्ख गठबंधन का नाम देकर इसमे दूसरे दर्जे यानि पायदान बन कर सत्ता सुख भोगते हुए पंजाब में भाजपा के आधार स्तर पर विस्तार में जानते बूझते हुए रुकावट बने रहे और बिना अकाली दल की नाव के पंजाब की चुनावी वैतरणी डूब जाने का भय केंद्रीय नेतृत्व को दिखाते रहे। इसी वजह से भाजपा किसान आंदोलन के दौरान पंजाब में किसानों से तालमेल नहीं बिठा पाई और न ही बे अदबियों के दौरान सत्ता में भागीदारी छोड़ कर समूचे पंजाबियों की भावनाओं के अनुरूप खुद दोषमुक्त हो पाई। सत्ता लोलुपता इन भाजपा नेताओं पर इस कदर भारी पड़ी रही कि यह भाजपा के भीतर भी पंजाब की अनिवार्यताओं के अनुरूप पंजाव का सियासी नरेटिव बनाने की जरूरत से अनभिज्ञ बने रहे और पंजाब की राजनीति जमना पार के सियासी नरेटिव के अनुसार तय होने की की कांग्रेसी परम्परा बनी रही। इस वजह से इसकी क्षमतावान दूसरी पंक्ति यानी युवा पीढ़ी निराशा के गर्त में डूब गई। भाजपा में गठबंधन का इच्छुक दूसरा वर्ग वो है जो देश की हिंदी बेल्ट में मोदी के तूफान से हाशिये पर चली गई कांग्रेस के गढ़ को खुद ही तहस नहस कर भाजपा में इस आस में घुसपैठ कर आये हैं कि उनका सियासी जीवन और कद बचा रहेगा। सम्भवतः इसीलिए पंजाब में भाजपा में नई बनी इस जुंडली ने एक केंद्रीय मंत्री के जालंधर दौरे के दौरान एकसुरता के साथ भाजपा के अकाली दल के साथ पुनः गठबंधन का राग गला फाड़ कर अलापा कि पंजाब में भाजपा में सांस फूंकने का यही इकलौता मन्त्र है।

अब सवाल खड़ा होता है कि क्या वाक्य ही में पंजाब के लोग सूबे की सत्ता या 2024 के लोकसभा चुनाव में खुद की बागडोर इस गठबंधन को सौंप देंगे? इस सवाल के जवाब के रूप कई सवाल खड़े है। जैसे क्यूँ और कैसे दो मुख्य सवाल है ? निसन्देह पंजाब में कांग्रेस में अंदरूनी लड़ाई और अकाली दल भाजपा गठबंधन के नेतृत्वकारी बादल परिवार के प्रति सिक्ख समुदाय की भारी नाराजगी और 3 नए कृषि कानूनों की वजह से भाजपा और विशेषता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति बेरूखी से पैदा शून्य में पंजाब की जनता ने उपलब्ध एक नए सियासी बदल आप आदमी पार्टी (आप)को स्पष्ट ही नही प्रचण्ड बहुमत से (92) सीटें देकर चुन लिया। इसका मतलब यह कतई नही था कि आप के नेतृत्व की काबलियत की वजह से उसे चुन लिया गया अपितु यह पंजाबियों से द्रोह करने वालों को सबक सिखाने और भविष्य को सही दिशा देने की आस मात्र से दिया गया जनादेश था ।जो दल एक सियासी गठबंधन को हिन्दू -सिक्ख एकता प्रचारित कर पंजाबियों को बांट कर खुद एक होकर सत्ता के जरिये पंजाव को लूटते रहे, उन्हें यह जनादेश खास तौर पर शीशा दिखाने वाला था कि पंजाबी एकता वास्तव में किसे कहते है। भले ही अभी विपक्ष इस प्रभाव में सपने बुन रहा है कि आप भी जनता के विश्वास की कसौटी पर खरा नहीं उतरी और उपलब्धता की दृष्टि से पंजाब की जनता अब उन्हें फिर मौका दे देगी। लेकिन यह इतना आसान नहीं है, विशेषता भाजपा के लिए यह गहन चिंतन का विषय है। यहाँ यह अति गौर करने योग्य है कि मुल्क के आधे से अधिक हिस्से में मोदी ब्रांड के छाए होने के बावजूद पंजाब में इसे भाव नही मिल रहा। इस चिंतन को सिर्फ पंजाव के किसी एक वर्ग में बांट कर देखने की अपेक्षा पंजाब के समग्र विकास जिसमे आर्थिक विकास के साथ – साथ क्षेत्रीय विरासत और संस्कृति, भाषा-बोली, दरियाई पानी,जहरीली जमीन को ठीक करने इत्यादि के विषयों पर पंजाबियों के  प्रति संदेह रहित भावना के साथ  करनें की आवश्यकता है। अंतराष्ट्रीय बाजार में पंजाब की भागीदारी बढ़ाने और पर्तिस्पर्धा में इसे आगे  रखने के लिए पाकिस्तान के साथ ट्रेड बॉर्डर खोलने की दिशा में बढ़ने , पंजाब के हवाई अड्डों का  अंतराष्ट्रीयकरण करके अन्तराष्ट्रीय उड़ानों की आज्ञा बड़े पैमाने पर देने के अलावा साफ नीति और नीयत के साथ पंजाब को समझने और फिर कार्य करने से ही पंजाब भी भाजपा को बिना किसी दल से गठबंधन के अकेले तौर पर अपना प्रतिनिधित्व सौंपने मैं गौरव महसूस करेगा।

मुद्दे का समापन इसी बात के साथ किया जा सकता है कि यदि यह सियासी गठबंधन पुराने ढर्रे पर हो जाता है हालांकि जिसकी सम्भावना अत्यंत कम है , का लाभ न तो पंजाब को होने वाला और न ही भाजपा को , हाँ बादल परिवार को ऑक्सीजन जरूर मिल जाएगी। भाजपा इस गठबंधन के पुराने समय के अविवादित दौर में लोकसभा की अधिकतम 3 सीटें जीत चुकी है और 19 सीटें पंजाब विधानसभा में जब वह 23 पर लड़ी थी। भाजपा से गठबंधन का लाभ अकाली दल को ही अधिक मिलता रहा है और इसकी बदौलत ही वह मालवा के अपने गढ़ में अपनी साख बचा लेता था। हालांकि भाजपा को इसकी कुर्बानी ग्रामीण क्षेत्र तक अपना विस्तार रोकने के रूप में हमेशा चुकानी पड़ी है। अकाली दल से गठबंधन के बिना पंजाब में जहां जहां भाजपा का जनाधार और प्रभाव है उससे लोकसभा की एक से दो सीटें अब भी आने की संभावना है लेकिन बादल अकाली दल का सूपड़ा बिना भाजपा के साफ होना तय है। बेशक गत विधानसभा चुनाव और जालन्धर लोकसभा के उपचुनाव अकेले दम पर लड़ने से भाजपा को सीटों का इजाफ़ा नही हुआ लेकिन इसका वोट बैंक बड़ा है। यह परिणाम सूबे में विपरीत परिस्थितियों में आए हैं। इसलिए इस समय भाजपा के लिए अकेले आगे बढ़ना अधिक उचित है। जब 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 400 सीटें आने के ओपिनियन पोल मिल रहे है तो निश्चित ही पंजाब में भी उसका मत प्रतिशत बढ़ेगा। यह स्थिति एक आध सीट का घाटा पंजाब में फिलहाल उठा कर पार्टी के विस्तार के साथ साथ विधानसभा चुनाव में अकेले सत्ता हासिल करने का अवसर पैदा करने के लिए कोई महँगा सौदा नही है। भाजपा को अब यह समझ लेना चाहिए कि उसे पूरे पंजाब का प्रतिनिधित्व प्राप्त करना है। खुद के किसी वर्ग विशेष का प्रतिनिधि होने के भ्रम को भी समाप्त करना है और किसी अन्य को दूसरे वर्ग का ही प्रतिनिधि रेखांकित कर गठबंधन के जरिये सत्ता में भागीदारी की राजनीति से बचना जरूरी है। गठबंधन सिर्फ समविचारक दलों या समूहों से ही हो। दूसरे दलो से लुटिया डूबने या डुबाने की स्थिति में नाव बदलने वालों के कंधों पर सवार होकर पंजाब की सियासी वैतरणी पार करने के प्रयास की अपेक्षा फराख दिली से पंजाबियों के दिलों में उत्तर कर राजसेवा प्राप्त करने पर केंद्रित होना चाहिए। पुराने घिसे पिटे और खुद को किसी सम्प्रदाय से जोड़ कर उसका प्रतिनिधि होने का दावा करने वालें नेताओ की अपेक्षा हर वर्ग में उपलब्ध सामाजिक नेतृत्वकारियो और अन्य दलों में अपेक्षित कर्मठ और साफ छवि के के सक्रिय लोगो को भाजपा में सम्मानित पदों से नवाज कर व आने पुराने कार्यकर्ताओं पर विश्वास व्यक्त कर पार्टी का नेतृत्व खड़ा करना चाहिए। इसी से पंजाब का भी प्रतिनिधित्व मिलनें का उसका मार्ग प्रशस्त होगा। वैसे भी कांग्रेस के टॉप ब्रास नेता पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेंद्र सिंह अकाली दल के नम्बर तीन रहे नेता सुखदेव सिंह ढींडसा की नई बनी पार्टियों से गठबंधन में उनके हिस्से के नतीजों से भी आकलन कर सकते कि पंजाब में उनकी जनस्वीकार्यता कितनी है।

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