राकेश शान्तिदूत (सम्पादक, मेट्रो एनकाउंटर)
वर्तमान में जिस वक्त भारत अति की मंहगाई से बेखबर मंदिरों, मस्जिदों या अन्य विभिन्न धर्म स्थानों या साम्प्रदायिक विवादों में व्यस्त है उस समय में एक ऐसी खबर सामने आई है जो यह दस्तक दे रही है कि जब मानव समाज ही नहीं बचेगा तो फिर उक्त सब कोई औचित्य ही नहीं रहेगा।
लान्सेंट कमिशन फ़ॉर पॉल्युशन एंड हेल्थ की रिपोर्ट के हवाले से यह खबर आई है कि 2019 में दुनिया भर में विभिन्न प्रकार के प्रदूषण से 9 मिलियन यानि 90 लाख मानवीय जाने गई है। यह आंकड़ा हाल ही में आई कुदरती बताई जा रही महामारी कोविड से हुई 3.3 मिलियन यानि 33 लाख, मानवीय मौतों से लगभग तीन गुना है।
इस रिपोर्ट के संदर्भ में यदि अपने देश भारत की बात करें तो प्रदूषण से हुई मानवीय मौतों की कुल गिनती में इसका हिस्सा 28 प्रतिशत है। इसका सीधा मतलब है कि प्रदूषण से 2019 में दुनिया भर में हुई कुल मौतों में से 27 लाख लोग भारत में मृत्यु का ग्रास बने हैं। आंकड़ों की यह स्थिति औसत के लिहाज से यथावत है।
बेशक दुनियां में प्रदूषण की पैदावार के लिए एक दूसरे को परस्पर जिम्मेवार ठहराए जाने का क्रम पश्चिम और पूर्व के बीच चलता आया है लेकिन वस्तुतः यह स्थिति तथाकथित विकास की अंधी दौड़ में हुए उद्योगीकरण की वजह से हुआ है। इस औद्योगिकरण की आवश्यकता का एक कारण जनसांख्यकीय विस्फ़ोट हो सकता है लेकिन बड़ी वजह इससे जुड़ा अंधानुकरण और प्राकृतिक सन्तुलन के लिए अनिवार्य जिम्मेवारी के निर्वाह के प्रति विमुखता ही है।
सड़क रेल मार्ग इत्यादि बनाने के लिए यदि पेड़ों को काटने की अनिवार्यता आड़े आई है तो संतुलन को बनाये रखने के लिए काटे गए पेड़ों की गिनती से तीन गुना नए पेड़ लगाने के लिए पौधरोपण संमय पूर्व किया ही नहीं गया। यदि बड़े मंझोले या लघु उद्योग लगाए गये है तो उनसे निकलने वाले पानी को साफ करके सिंचाई के लिए प्रयोग करने की अपेक्षा सीधे नदियों में डाल कर उन्हें ही प्रदूषित कर दिया गया। यही वजह है कि धरती के नीचे का जल जल न रह कर जहर बनता जा रहा है।
विभिन्न प्रकार के प्रदूषण के बीच उक्त मौतों के लिए सबसे बड़ा कारण वायु प्रदूषण को बताया जा रहा है। हालाँकि दूसरा बड़ा कारण धरती के नीचे के जल और नदियों के जल के प्रदूषित होने को माना गया है। अपने देश इस विषय पर चर्चा को लेकर यह विडंबना है कि यह सिर्फ दिल्ली तक सीमित हो रह जाती है। जबकि “पवन गुरु पानी पिता माता धरत महत” का कुदरती सच कहने वाले गुरु नानक देव जी की प्रकाश भूमि भी इस गुरुबाणी सिद्धान्त को समझते बूझते त्याग चुकी है। अभी हाल ही में व्यंग्य किया गया था कि औधोगिक प्रदूषण से मरणासन्न हुआ लुधियाना का बुड्ढा नाला इस कदर बीमारियां बांट रहा है कि सूबे के सभी अस्पतालों को मरीज वही उपलब्ध करवा रहा है। सूबे का मालवा खंड भूजल के दूषित होने की वजह से कैंसर भूमि के नाम से विख्यात हो रहा है। सब जानते बूझते हुए भी खेतों में हज़ारों एकड़ में गेंहूँ की नाड़ जलाई जा रही है।
निः सन्देह कोरोना काल मे जब जालन्धर से 170 किलोमीटर की दूरी पर स्थित हिमाचल प्रदेश की धौलाधार पर्वत श्रृंखलाएं हमने स्पष्ट नंगी आंखों से देखी थी तो हमे प्रदूषण को समझने का आभास हुआ था लेकिन उसके बाद फिर उदासीनता का दौर है। इसके बावजूद प्राक्रतिक संतुलन के प्रति आम जन में जागृति आई है और पौधारोपण की एक मुहिम आगे बढ़ रही है लेकिन इस दिशा में बिना राजनीतिक इच्छा शक्ति के समाधान सम्भव नही है। विडंबना ही है कि मानव समाज के लिए सबसे बड़ी समस्या प्रदूषण या पर्यावरण को कोई भी राजनीतिक दल अपने चुनावी घोषणा पत्र में शामिल नही कर पाया। यह तथ्य ही जिम्मवारी के निर्वाह से विमुखता का प्रतीक है।
प्रदूषण से हुई मौतों के आंकड़े ने यह पुष्टि की है कि कुदरती महामारी से भी अधिक मानव समाज पर भारी इसकी स्वनिर्मित महामारी है। इस विषय पर अगर संमय रहते न चेते तो अगला मंजर अत्यंत भयानक होगा।